ओ३म्
चाणक्य―नीति
Chanakya Neethi
नाहारं चिन्तयेत् प्राज्ञो धर्ममेकं हि चिन्तयेत् ।
आहारो हि मनुष्याणां जन्मना सह जायते ।।
―१२/१८
भावार्थ―बुद्धिमान् मनुष्य को अपने आहार, भोजन के सम्बन्ध में सोच-विचार नहीं करना चाहिए, उसे तो केवल धर्म का ही चिन्तन करना चाहिए, क्योंकि मनुष्य का आहार तो उसके जन्म के साथ ही उत्पन्न हो जाता है।
A wise person must not think about his food much, he must think about only Dharma (Religion). Because his food has gained itself with his birth automatically.
विमर्श―मनुष्य को आहार की चिन्ता नहीं करनी चाहिए, क्योंकि परमात्मा की प्रतिज्ञा है―
Advice - A human being must not have anxiety about his food, as the god himself has determined-
अहं दाशेषु वि भजामि भोजनम् ।
―ऋ० १०/४८/१
आत्मसमर्पण करनेवालों को भोजन मैं देता हूँ।
I give food to the person of self surrender.
और―
and-
ईशा वास्यमिदं सर्वम् ।यजु० ४०/१
इस चराचर जगत् को परमात्मा ने थामा हुआ है, धारण किया हुआ है। हे भक्त ! तू उसपर विश्वास कर। जिसने सारे ब्रह्माण्ड को धारण किया हुआ है, क्या वह तुझे धारण नहीं करेगा? सुन―
This immovable-moving world has been hold by the god himself. O Devotee! Have faith on him. Will he not hold you who has hold the whole universe. Listen-
जीव बसे जल में थल में सबकी सुधि लेय सो तेरी भी लैहें ।
काहे को सोच करे मन मूरख सोच करे कछु हाथ न ऐहें ।
जान को देत अजान को देत, जहान को देत सो तोकू न दैहें ।।
When we did not have Teeth, He gave us Milk,
Now when we have Teeth, Shall he not give us Food?
When he looks after All the organisms whether of water or of Land,
Shall he not take care of Us?
Why are you thinking,
You will not get anything by only thinking.
He gives to known, he gives to unknown,
Then How is it possible that he will not give to you?
मनुष्य को धर्म का ही चिन्तन करना चाहिए―
A Human Being must think about only Dharma-
सुखार्थाः सर्वभूतानां मताः सर्वाः प्रवृत्तयः ।
सुखं च न विना धर्मात्तस्माद्धर्मपरो भवेत् ।।
―शुक्रनीति० ३/१
सभी प्राणियों की किसी भी कार्य को करने की जितनी प्रवृत्तियाँ हैं, वे सभी आत्म-सुख की प्राप्ति के लिए होती है। सुख धर्म के बिना नहीं मिलता, अतः मनुष्य को धर्मपरायण होना चाहिए।
All the living organisms, who has the nature of actions, those nature are for only self pleasure. Pleasure is not obtained with out Dharma. So everyone must be Religious.
(अनुवादक: स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती)
।। ओ३म् ।।
Truly
Brahmchari Anubhav Sharma